जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने कहा कि निर्दयी होकर लोगों के घर तोड़ने से देश की छवि खराब होती है
हल्द्वानी में रहने वाले लोग भी इंसान, न्यायालय निर्दयी नहीं हो सकते: सुप्रीम कोर्ट
नई दिल्ली 27 जुलाई 2024। हल्वाौलनी रेलवे कॉलोनी के पचास हजार लोगों को राहत देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड की राज्य सरकार को निर्देश दिया है कि रेलवे स्टेशन के लिए जमीन सुरक्षित करने से पहले वहां रहने वाले लोगों के पुनर्वास की व्यवस्था की जाए। न्यायालय ने कहा कि जो लोग यहां रह रहे हैं, उनके पास भी मालिकाना हक का दावा करने के दस्तावेज मौजूद हैं। जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि मान लेते हैं कि वह अतिक्रमणकारी हैं, फिर भी सवाल यह है कि यह सभी मनुष्य हैं जो कई दशकों से पक्के मकानों में रह रहे हैं। जस्टिस कांत ने स्पष्ट रूप से कहा कि न्यायालय निर्दयी नहीं हो सकते, लेकिन साथ ही अतिक्रमण की अनुमित भी नहीं दी जा सकती।
न्यायालय के निर्देश पर जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने कहा कि हाल ही में गरीबों और पिछड़े वर्गों के घरों को ध्वस्त करने में मानवाधिकारों के उल्लंघन के कई मामले सामने आए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मानवीय पहलू को सामने लाकर ऐसी सरकारों के आईना दिखाया है जो घरों को तोड़ते समय प्रताड़ना, हिंसा और क्रूरता दिखाती हैं। मौलाना मदनी ने सरकारों मांग की कि वह घरों के विध्वंस के दौरान मानवीय पहलू को ध्यान में रखें और जबरदस्ती एवं हिंसा से बचें। उन्होंने कहा कि इस तरह की कार्रवाइयों से न केवल प्रभावित लोगों के लिए समस्याएं पैदा होती हैं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देश की प्रतिष्ठा प्रभावित होती है। उन्होंने कहा कि लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक सिद्धांतों का पालन हर हाल में जरूरी है।
ज्ञात हो कि 5 जनवरी, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने जमीअत उलमा-ए-हिंद और अन्य संगठनों की याचिका पर ध्वस्तीकरण की कार्रवाई पर रोक लगा दी थी। इस मामले में जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी के निर्देश पर प्रभावित क्षेत्र के निवासी इमरान और अन्य पीड़तों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता रऊफ रहीम और एडवोकेट-ऑन-रिकॉर्ड मंसूर अली पेश हुए। जमीअत उलमा-ए-हिंद के कार्यालय से कानूनी परामर्श की जिम्मेदारी एडवोकेट नियाज़ अहमद फारूकी ने निभाई। इस बीच, जमीअत उलमा-ए-हिंद के महासचिव मौलाना हकीमुद्दीन कासमी के नेतृत्व में जमीअत उलमा-ए-हिंद के प्रतिनिधिमंडल ने कई बार रेलवे कॉलोनी के लोगों से मुलाकात भी की।
24 जुलाई को अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भट्टी ने न्यायालय को सूचित किया कि कब्जाधारियों के खिलाफ सार्वजनिक परिसर अधिनियम, 1971 के तहत कार्रवाई भी लंबित है। जस्टिस कांत ने कहा कि सच्चाई यह है कि लोग वहां 5 दशकों से रह रहे हैं, आप इतने वर्षों से क्या कर रहे थे।
जब एएसजी ने कहा कि रेलवे ने सार्वजनिक परिसर अधिनियम के तहत कार्रवाई करने की शक्ति कलेक्टर को सौंप दी है, तो न्यायमूर्ति कांत ने पूछा, "उन्होंने क्या किया? हम कलेक्टर को जवाबदेह क्यों न बनाएं?" जब खंडपीठ ने पूछा कि वर्तमान उद्देश्य के लिए कितने लोगों को बेदखल करने की आवश्यकता होगी?" एएसजी ने जवाब दिया, "1200 झोपड़ियां।" सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट को बताया गया कि लगभग 30.40 हेक्टेयर रेलवे/सरकारी भूमि पर कब्जा किया गया है और वहां लगभग 4365 घर और 50,000 से ज्यादा निवासी हैं। सुप्रीम कोर्ट ने रेलवे की आवश्यकता को स्वीकार किया लेकिन प्रभावित लोगों के साथ मानवतापूर्ण रवैया अपनाने और पुनर्वास की आवश्यकता पर जोर दिया।
खंडपीठ ने भारत सरकार और उत्तराखंड राज्य सरकार निर्देश दिया कि 1.रेलवे लाइनों को स्थानांतरित करने या आवश्यक बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए बिना देरी किए भूमि की पट्टी (चौड़ाई और लंबाई) की पहचान करें। 2. उन परिवारों की पहचान करें जो उस पट्टी से खाली होने की स्थिति में प्रभावित होने की संभावना रखते हैं। 3. ऐसी जगह का प्रस्ताव करें, जहां ऐसे प्रभावित/उजाड़ दिए गए परिवारों का पुनर्वास किया जा सके।
न्यायालय ने उत्तराखंड के मुख्य सचिव को रेलवे अधिकारियों (मंडल वरिष्ठ प्रबंधक, उत्तराखंड) और आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय, भारत सरकार के साथ एक बैठक आयोजित करने का निर्देश दिया, जिससे ऐसी शर्तों के अधीन तुरंत पुनर्वास योजना विकसित की जा सके, जो "निष्पक्ष, न्यायसंगत, न्यायसंगत और सभी पक्षों को स्वीकार्य हों।" न्यायालय ने कहा "पहली पहल के रूप में जिस भूमि की तुरंत आवश्यकता है, उसे पूर्ण विवरण के साथ पहचाना जाए। इसी तरह उस भूमि पर कब्जा करने की स्थिति में प्रभावित होने वाले परिवारों की भी तुरंत पहचान की जाए।" यह अभ्यास चार सप्ताह के भीतर पूरा किया जाना है। मामले की अगली सुनवाई 11 सितंबर, 2024 को होगी।
ہلدوانی میں رہنے والے لوگ بھی انسان ہیں، عدالت بے رحم نہیں ہوسکتی: سپریم کورٹ
جمعیۃ علماء ہند کے صدر مولانا محمود مدنی نے کہا کہ بے رحم ہو کر لوگوں کے مکانات توڑنے سے ملک کی بدنامی ہوتی ہے
نئی دہلی 27؍ جولائی 24ہلدوانی میں ریلوے کالونی کے پچاس ہزار لوگوں کو راحت دیتے ہوئے سپریم کورٹ نے اتراکھنڈ کی ریاستی حکومت کو ہدایت دی ہے کہ ریلوےاسٹیشن کے لیے زمین محفوظ کرنے سے قبل وہاں رہنے والوں کی بازآبادکاری کا انتظام کیا جائے ۔ عدالت نے کہا کہ جو لوگ یہاں ر ہ رہے ہیں، ان کے پاس بھی ملکیت کے دعوی کے لیے دستاویزات موجود ہیں ۔جسٹس سوریہ کانت نے کہ آئیے مان لیتے ہیں کہ وہ تجاوزات کرنے والے ہیں، پھر بھی سوال یہ ہے کہ یہ سب انسان ہیں جو کئی دہائیوں سے پختہ مکانات میں رہ رہے ہیں۔ جسٹس کانت نے صاف صاف کہا کہ عدالتیں بے رحم نہیں ہو سکتیں، لیکن ساتھ ہی تجاوزات کی اجازت بھی نہیں دی جاسکتی۔
واضح ہو کہ ۵ ؍ جنوری ۲۰۲۳ء کو سپریم کورٹ نے جمعیۃ علماء ہند و دیگر تنظیموں کی عرضی پر نہدامی کارروائی پر اسٹے دے دیا تھا ، اس معاملے میں صدر جمعیۃ علماء ہند مولانا محمود اسعد مدنی کی ہدایت پر متاثرہ علاقہ کے رہائشی عمران و دیگر متاثرین کی طرف سے سینئر ایڈوکیٹ رؤف رحیم اور ایڈوکیٹ آن ریکارڈ منصور علی پیش ہوئے ،دفتر جمعیۃ علماء ہند سے قانونی مشاورت کی ذمہ داری ایڈوکیٹ نیاز احمد فاروقی نے ادا کی ۔ اس درمیان ناظم عمومی جمعیۃعلماء ہند مولانا حکیم الدین قاسمی کی سربراہی میں جمعیۃعلماء ہند کے وفد نے متعدد بار ریلوے کالونی کے لوگوں سے ملاقا ت بھی کی ۔
24؍ جولائی کو ایڈیشنل سالیسٹر جنرل ایشوریہ بھٹی نے عدالت کو مطلع کیا کہ قابضین کے خلاف پبلک پریمیسس ایکٹ 1971 کے تحت کارروائی بھی زیر التوا ہے۔جسٹس کانت نے کہا کہ حقیقت یہ ہے کہ لوگ وہاں5 دہائیوں سے رہ رہے ہیں، آپ اتنے سالوں سے کیا کر رہے تھے؟
جب اے ایس جی نے کہا کہ ریلوے نے پبلک پریمیسس ایکٹ کے تحت کارروائی کا اختیار کلکٹر کو سونپ دیا ہے تو جسٹس کانت نے پوچھا،"انھوں نے کیا کیا؟ ہم کیوں نہ کلکٹر کو جواب دہ بنائیں؟"جب بنچ نے پوچھا کہ موجودہ مقاصد کے لیے کتنے لوگوں کو بے دخل کرنے کی ضرورت ہوگی، اے ایس جی نے جواب دیا، "1200 جھونپڑیاں۔"سماعت کے دوران بنچ کو بتایا گیا کہ تقریباً 30.40 ہیکٹر ریلوے/سرکاری اراضی پر قبضہ کیا گیا ہے اور وہاں تقریباً 4365مکانات اور پچاس ہزار سے زیادہ مکین ہیں۔ سپریم کورٹ نے ریلوے کی ضرورت کو تسلیم کیا، لیکن متاثرہ افراد کے ساتھ انسانیت پر مبنی رویہ اختیار کرنے اور بحالی کی ضرورت پر زور دیا۔ بنچ نے حکومت ہند اور ریاست اتراکھنڈ کو ہدایت دی کہ ریلوے لائنوں کو منتقل کرنے یا ضروری انفراسٹرکچر کی تعمیر کے لیے بغیر کسی تاخیر درکار زمین کی پٹی (چوڑائی اور لمبائی ) کی نشاندہی کریں۔۲۔ ان خاندانوں کی شناخت کریں جو انخلا کی صورت میں متاثر ہوں گے۔۳۔ ایسی جگہ تجویز کریں جہاں ایسے متاثرہ خاندانوں کی بحالی ہوسکے۔عدالت نے اتراکھنڈ کے چیف سکریٹری کو ہدایت دی کہ وہ ریلوے حکام (ڈویژنل سینئر مینیجر، اتراکھنڈ) اور ہاؤسنگ اور شہری امور کی وزارت، حکومت ہند کے ساتھ ایک میٹنگ منعقد کریں، تاکہ فوری طور پر بحالی کا منصوبہ تیار کیا جا سکے جو منصفانہ ہو اور تمام فریقوں کے لیے قابل قبول ہو۔عدالت نے کہا کہ مطلوبہ زمین نشاندہی کی جانی چاہیے۔ اسی طرح اس زمین پر تجاوزات کی صورت میں متاثر ہونے والے خاندانوں کی بھی فوری نشاندہی کی جائے۔یہ عمل چار ہفتوں میں مکمل ہوجانی چاہیے ۔ کیس کی اگلی سماعت 11 ستمبر 2024 کو ہوگی۔
اس فیصلے پر جمعیۃ علماء ہند کے صدر مولانا محمود اسعد مدنی نے کہا کہ حال میں غریب اور پسماندہ طبقات کے مکانات کے انہدام میں انسانی حقوق کی پامالی کے متعدد واقعات سامنے آئے ہیں ۔ سپریم کورٹ نے اس معاملے میں انسانی پہلو کو سامنے لا کر ایسی حکومتوں کوآئینہ دکھلایا ہے جو مکانات کے توڑتے وقت جبر و تشدد اور بے رحمی کا مظاہرہ کرتی ہیں ۔ مولانا مدنی نے حکومتوں سے مطالبہ کیا کہ وہ مکانات کے انہدام کے دوران انسانی پہلو کو مدنظر رکھیں اور جبر و تشدد سے باز رہیں۔ انہوں نے کہا کہ اس طرح کے اقدامات سے نہ صرف متاثرہ افراد کے لئے مشکلات پیدا ہوتی ہیں بلکہ بین الاقوامی سطح پر بھی ملک کی ساکھ متاثر ہوتی ہے۔ انہوں نے کہا کہ جمہوری اقدار اور آئینی اصولوں کی پاسداری ہر صورت میں ضروری ہے۔