Supreme Court’s Historic Verdict Brings Relief to Lakhs in Assam: Jamiat Ulama-i-Hind Hails Victory
Maulana Mahmood Madani calls it a historic moment for millions
New Delhi, October 17: Maulana Mahmood Asa’d Madani, President of Jamiat Ulama-i-Hind, has hailed the Supreme Court’s verdict as a historic moment that will bring immense relief to lakhs of people in Assam. "This ruling is a milestone in our long-standing fight for the oppressed people of Assam, who have been struggling to secure their citizenship rights for decades. It brings an end to their fears and uncertainties, and Jamiat will continue its efforts to protect the rights of all marginalized communities," he said. Maulana Badruddin Ajmal, President of Jamiat Ulama-i-Assam, expressed gratitude to all organizations and individuals who contributed to protecting the citizenship rights of Assam’s people.
In a landmark judgment, the Supreme Court has declared Section 6A of the Citizenship Act, 1955, as constitutional. The five-judge bench, led by the Chief Justice, ruled by majority in favor of the legal validity of the 1971 cut-off date for Assam. This verdict will provide much-needed relief to lakhs of people in Assam, who have lived under the looming threat of losing their citizenship for decades.
The Supreme Court’s ruling on Jamiat Ulama-i-Hind’s IA (No. 274/2009) upholds the Assam Accord, which grants citizenship to those who settled in Assam before March 25, 1971. The court recognized that the Assam Accord was a political solution to the influx of illegal immigrants, and the cut-off date of March 25, 1971, has legal validity given the high migration from East Pakistan to Assam after India's independence.
Jamiat Ulama-i-Hind, under the leadership of its president Maulana Mahmood Asa’d Madani, and its state unit Jamiat Ulama Assam, has been fighting this case in the Supreme Court for the past 15 years. Jamiat is currently involved in nine other cases concerning the Assam NRC in the Supreme Court. A previous victory was achieved when Panchayat Link Certificates were accepted as valid documentation for 4.8 million women, ensuring their citizenship rights.
What is Section 6A of the Citizenship Act?
Section 6A of the Citizenship Act, 1955, grants citizenship rights to refugees of Indian origin who arrived in India before March 25, 1971. This section was introduced after the Assam Accord of 1985, a political settlement between the Government of India and the leaders of the Assam Movement. The agreement recognized anyone residing in Assam before March 25, 1971, as an Indian citizen.
However, in 2009, an organization named Assam Sanmilita Mahasangha filed a petition in the Supreme Court, challenging the Assam Accord and demanding that only those who arrived before 1950 should be considered Indian citizens, as per the law in other states. Jamiat Ulama-i-Assam intervened in this case to uphold the Assam Accord. Senior lawyers, including M.R. Shamshad, Dushyant Dave, Indira Jaisingh, Sanjay Hegde, late Shakeem Ahmad Syed and others, represented Jamiat in the legal battle.
सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: असम के लाखों लोगों को राहत, नागरिकता कानून की धारा 6ए की संवैधानिकता बरकरार
- जमीअत उलमा-ए-हिंद के लंबे संवैधानिक संघर्ष की बड़ी सफलता, जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी और जमीअत उलमा असम के अध्यक्ष ने फैसले का स्वागत किया और कहा कि पीड़ितों के लिए हमारा संघर्ष आखिरकार रंग लाया
नई दिल्ली, 17 अक्टूबर। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में नागरिकता अधिनियम, 1955 की धारा 6ए को संवैधानिक बताया है। चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली 5 न्यायाधीशों की बेंच ने 4-1 के बहुमत से यह निर्णय सुनाया। इससे असम के लाखों लोगों को राहत मिलेगी, जिनके ऊपर दशकों से नागरिकता की तलवार लटकी हुई थी।
जमीअत उलमा-ए-हिंद की रिट याचिका संख्या 274/2009 पर फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह अधिनियम असम समझौते के अनुरूप है, जिसके अनुसार जो भी 25 मार्च 1971 से पहले असम में रह रहै थे, वह सभी लोग और उनके सभी परिजन और संतान भारतीय नागरिक माने जाएंगे। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति सुंदरेश और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा ने 6ए की संवैधानिकता के पक्ष में फैसला सुनाया। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में कहा कि असम समझौता अवैध शरणार्थियों की समस्या का एक राजनीतिक समाधान था और अनुच्छेद 6ए एक कानूनी समाधान है। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार इस अधिनियम को अन्य क्षेत्रों में भी लागू कर सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि यह विशेष रूप से असम के लिए था। अदालत ने माना कि धारा 6ए के तहत 25 मार्च, 1971 की समय सीमा उचित थी। आज़ादी के बाद, पूर्वी पाकिस्तान से असम की ओर पलायन भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक था।
जमीअत उलमा-ए-हिंद और उसकी राज्य इकाई जमीअत उलमा असम, जमीअत उलमा-ए-हिंद मौलाना महमूद असद मदनी के नेतृत्व में गत पंद्रह वर्षों से सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा लड़ रही थी, कई बड़े-बड़े वकीलों ने असम के लाखों पीड़ितों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी की। इस केस के पहले वकील श्री शकील अहमद कोविड के समय इस दुनिया से चले गए, लेकिन जमीअत उलमा-ए-हिंद की इस यात्रा को आखिरकार सफलता मिली। इस फैसले के बाद पूरे असम में जश्न का माहौल है।
जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी, असम के अध्यक्ष मौलाना बदरुद्दीन अजमल, महासचिव हाफिज बशीर अहमद कासमी, सचिव मौलाना फजलुल करीम, मौलाना महबूब हसन और मौलाना अब्दुल कादिर समेत कई प्रमुख पदाधिकारियों ने फैसले का स्वागत किया है। जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद पिछले 70 वर्षों से असम के गरीब और पीड़ित लोगों के लिए हर मोर्चे पर संघर्ष कर रही है, यह फैसला जमीअत उलमा-ए-हिंद लोगों के संघर्ष में एक मील का पत्थर साबित होगा और उन लोगों को राहत मिलेगी जो नागरिकता की उम्मीद खो चुके थे। मौलाना मदनी ने कहा कि असम एनआरसी को लेकर हम सुप्रीम कोर्ट में नौ केस लड़ रहे हैं। इससे पूर्व एक बड़ी सफलता तब मिली थी जब 48 लाख महिलाओं के लिए पंचायत लिंक सर्टिफिकेट को मान्यता दी गई थी। उस समय भी जमीअत उलमा-ए-हिंद सभी पीड़ित बहनों की ओर से सुप्रीम कोर्ट में खड़ी थी, उसमें मुस्लिम और गैर-मुस्लिम सभी महिलाएं शामिल थीं। मौलाना मदनी ने यह संकल्प दोहराया कि जमीअत उलमा-ए-हिंद आगे भी असम के उत्पीड़ित लोगों के लिए संघर्ष जारी रखेगी। मौलाना अजमल ने कहा कि हम उन सभी संगठनों और व्यक्तियों को भी धन्यवाद देते हैं जो किसी भी प्रकार से इस लड़ाई में शामिल रहे हैं और असम के मुसलमानों की नागरिकता की रक्षा के प्रयास किए हैं।
असम में विभिन्न नस्लों के लोगों के होने में क्या गलत है?
चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि राज्यों को बाहरी हमलों से बचाना सरकार का कर्तव्य है। संविधान के अनुच्छेद 355 के दायित्व को अधिकार के रूप में पढ़ने से नागरिकों और न्यायालयों को आपातकालीन अधिकार मिल जाएंगे जो विनाशकारी होगा। उन्होंने कहा कि किसी राज्य में विभिन्न नस्लीय समूहों की उपस्थिति का मतलब अनुच्छेद 29(1) का उल्लंघन नहीं है। याचिकाकर्ता को यह साबित करना होगा कि एक नस्लीय समूह दूसरे नस्लीय समूह की उपस्थिति के कारण अपनी भाषा और संस्कृति की रक्षा करने में असमर्थ है।
नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6ए क्या है?
नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 6ए भारतीय मूल के विदेशी शरणार्थियों को, जो 1 जनवरी 1966 के बाद लेकिन 25 मार्च 1971 से पहले भारत आए थे, भारतीय नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार देती है। यह धारा 1985 में असम समझौते के बाद जोड़ी गई थी। भारत सरकार और असम आंदोलन के नेताओं के बीच यह समझौता हुआ था। दरअसल, असम आंदोलन के नेता बांग्लादेश से असम में अवैध शरणार्थियों को बाहर निकालने की मांग कर रहे थे। इसमें शामिल की गई 25 मार्च 1971 की अंतिम तिथि वह दिन था, जब बांग्लादेश में स्वतंत्रता संग्राम समाप्त हुआ था।
15 अगस्त, 1985 को स्वर्गीय राजीव गांधी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार, असम की प्रदेश सरकार और आंदोलनकारी संगठनों के बीच एक समझौता हुआ, जिसे "असम एकॉर्ड" का नाम दिया गया, जिसमें यह तय किया गाय कि जो लोग भी 25 मार्च, 1971 से पहले असम में आ गए थे, चाहे वह कहीं से भी आए हों, और जो भी हों, उन्हें भारतीय माना जाएगा। सभी पक्षों ने इस पर हस्ताक्षर किए और एक मामले का समाधान हो गाय और और इसके बाद केंद्र सरकार ने नागरिकता अधिनियम 1955 में संशोधन करते हुए संसद में बिल लाकर धारा 6 ए को दाखिल किया, जिसने असम को अन्य राज्यों से छूट देते हुए वहां की नागरिकता के लिए 1971 को कट-ऑफ इयर घोषित किया गया। लेकिन 2009 में, "असम संमिलिता महासंघ" नामक एक अप्रसिद्ध संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर कर असम एकॉर्ड और नागरिकता अधिनियम की धारा 6ए को असंवैधानिक होने का दावा कर के इसपर रोक लगाने की गांग की। इस संगठन की मांग थी कि जो लोग असम में 1 जनवरी, 1966 से पहले आए हैं, केवल उन लोगों को ही भारतीय माना जाए जैसा कि देश के अन्य राज्यों में नियम है।
जमीअत उलमा असम ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में पक्षकार बनते हुए इसे चुनौती दी और असम एकॉर्ड को बनाए रखने की पुरजोर वकालत की। ज्ञात हो कि यदि इस संगठन की बात को न्यायालय मान लेती, तो 1 जनवरी, 1966 और मार्च 25, 1971 के बीच असम में आए लोगों को विदेशी घोषित कर दिए जाते, जिनकी संख्या लाखों में है, क्योंकि बांग्लादेश बनने में जो उथल-पुथल हुई थी, जिसमें मुस्लिम और गैर-मुस्लिम सब शामिल थे। लेकिन इसमें इस स्थिति में प्रभावित होने वाले केवल मुसलमान ही होते, क्योंकि 2019 में मोदी सरकार द्वारा पारित नागरिकता संशोधन अधिनियम के अनुसार जो गैर-मुस्लिम दिसंबर 2014 तक पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए हैं, उनको भारतीय नागरिकता प्रदान कर दी जाएगी, लेकिन मुसलमानों के लिए ऐसी कोई सुविधा नहीं है, इसलिए केवल मुसलमानों को ही निशाना बनाया जाता। जमीअत उलम-ए-हिंद की ओर से मामले की पैरवी वरिष्ठ वकील एमआर शमशाद, दुशयंत दवे, इंदिरा जय सिंह, एडवोकेट मंसूर अली खान, दिवंगत शकील अहमद सैयद (2020 तक), संजय हेगड़े, असम से अब्दुल सबूर तफादार, मुस्तफा खुद्दाम हुसैन, नजरुल हक मजार कर रहे थे।
* سپریم کورٹ کا تاریخی فیصلہ ۔جمعیۃ علماء ہند کی طویل آئینی جد وجہد رنگ لائی ۔صدر جمعیۃ علماء ہند مولانا محمودمدنی اور صد ر جمعیۃ علماء آسام مولانا بدرالدین اجمل نے کہا کہ ہماری لڑائی لاکھوں انسانوں کے لیے تھی*
نئی دہلی ۱۷؍ اکتوبر : سپریم کورٹ نے اپنے ایک تاریخی فیصلے میںسٹیزن شپ ایکٹ 1955 کی دفعہ 6A کو آئینی قرار دیا ہے۔ چیف جسٹس کی سربراہی میں 5 ججوں کی بنچ نے کثرت رائے سے یہ فیصلہ سنایا اور آسام کے لیے کٹ آف ڈیٹ 1971 کو قانونی طور پر درست قرار دیا ۔اس فیصلے سے آسام کے لاکھوں لوگوں کو راحت ملے گی جن کے اوپر دہائیوں سے شہریت کی تلوار لٹکی ہوئی تھی ۔
جمعیۃ علما ء ہند کی آئی اے No. 274/2009 پر فیصلہ سنا تے ہوئے سپریم کورٹ نے کہا کہ یہ ایکٹ آسام معاہدہ کے مطابق ہے جس کی رو سے جو شخص بھی 25مارچ 1971 سے پہلے آسام میں رہ رہا تھا، وہ اور اس کی اولاد ہندوستانی شہری شمار کی جائے گی۔ چیف جسٹس ڈی وائی چندرا چوڑ، جسٹس سوریہ کانت، جسٹس سندریش اور جسٹس منوج مشرا نے 6A کی آئینی حیثیت کے حق میں فیصلہ دیا۔ چیف جسٹس چندر اچوڑ نے اپنے فیصلے میں کہا کہ آسام معاہدہ غیر قانونی پناہ گزینوں کے مسئلے کا سیاسی حل تھا اور اس میں دفعہ 6A قانون کے عین مطابق ہے۔ انھوں نے کہا کہ مرکزی حکومت اس قانون کو دوسرے علاقوں میں بھی لاگو کر سکتی تھی لیکن ایسا نہیں کیا گیا کیوں کہ یہ آسام کے لئے خاص ہے۔عدالت نے مانا کہ 6A کے تحت 25 مارچ 1971 کی کٹ آف ڈیٹ بھی درست ہے کیوں کہ آزادی کے بعد بھارت کے دوسرے علاقوں کے مقابلے مشرقی پاکستان سے آسام میں ہجرت زیادہ ہوئی۔
* جمعیۃ علماء ہند اور اس کی ریاستی یونٹ جمعیۃ علماء آسام، صدر جمعیۃ علماء ہند مولانا محمود اسعد مدنی کی قیادت* میں پچھلے پندرہ سالوں سے سپریم کورٹ میں مقدمہ لڑرہی ہے، کئی نامور وکیلوں نے آسام کے لاکھوں مظلوم انسانوں کی طرف سے سپریم کورٹ میں پیروی کی ۔ اس مقدمہ کے اول وکیل شکیل احمدسید ،کووڈ کے دور میں داغ مفارقت دے گئے، اس کے باوجود جمعیۃ علماء ہند کی جد وجہد کا یہ سفر بالآخر کامیابی سے ہمکنار ہوا ۔اس فیصلے کے بعد آسام بھر میں جشن کا ماحول ہے ۔ جمعیۃعلماء ہند کے صدر مولانا محمود اسعد مدنی ، ناظم عمومی جمعیۃ علماء ہند مولانا حکیم الدین قاسمی، قانونی معاملات کے نگراں ایڈوکیٹ نیاز احمد فاروقی سکریٹری جمعیۃ علماء ہند، آسام کے صدر مولانا بدرالدین اجمل قاسمی ، ناظم اعلیٰ حافظ بشیر احمد قاسمی ، سکریٹری مولانا فضل الکریم ، مولانا محبوب حسن اور مولانا عبدالقادر سمیت کئی اہم ذمہ داروں نے اس فیصلے کا استقبال کیا ہے ۔
صدر جمعیۃ علماء ہند مولانا محمود اسعد مدنی نے کہا کہ جمعیۃ علماء ہند گزشتہ چھ دہائیوں سے آسام کے غریب اور مظلوم انسانوں کے لیے ہر محاذ پر جدوجہد کررہی ہے ، یہ فیصلہ جمعیۃ علماء ہند کی جد وجہد میں ایک سنگ میل ثابت ہو گا اور ان لوگوں کو راحت ملے گی جو شہریت کی امید کھو بیٹھے تھے ۔ مولانا مدنی نے کہا کہ آسام این آرسی کے سلسلےمیں سپریم کورٹ میں ہم نو مقدمات لڑرہے ہیں۔ اس سے قبل ایک بڑی کامیابی اس وقت ملی تھی جب ہماری جد وجہد سے ۴۸ لاکھ خواتین کے لیے پنچایت لنک سرٹیفیکٹ کو تسلیم کیا گیا تھا ۔وہ ایسی خواتین تھیں جن کے دوسرے علاقوں میں شادی ہوگئی تھی، ان کے پاس پنچایت سرٹیفکیٹ کے علاوہ اپنے والدین سےرشتہ ثابت کرنے کا کوئی کاغذ نہ تھا، اس وقت بھی جمعیۃ علماء ہند سبھی مظلوم بہنوں کی طرف سے سپریم کورٹ میں کھڑی تھی ، اس میں مسلم اور غیر مسلم سبھی خواتین شامل تھیں ۔مولانا مدنی نے اس عزم کا اعادہ کیا کہ جمعیۃ علماء ہند آگے بھی آسام کے مظلوم انسانوں کے لیے جد وجہد جاری رکھے گی ۔ صدر جمعیۃ علماء آسام مولانا بدرالدین اجمل نے کہا ہم ان تمام تنظیموں اور افراد کا بھی شکریہ ادا کرتے ہیں جو کسی بھی طرح اس لڑائی میں شریک رہے اور آسام کے مسلمانوں کی شہریت کے تحفظ کے لئے کوشش کرتے رہے۔
آسا م میں الگ نسلوں کے لوگوں کے ہونے میں کیا غلط ہے ؟
چیف جسٹس چندرا چوڑ نے کہا کہ ریاستوں کو بیرونی حملوں سے بچانا حکومت کا فرض ہے۔ آئین کے آرٹیکل 355 کے فرض کو حقوق کے طور پر پڑھنے سے شہریوں اور عدالتوں کو ہنگامی حقوق حاصل ہو جائیں گے جو تباہ کن ہوگا۔ انہوں نے کہا کہ کسی ریاست میں مختلف نسلی گروپوں کی موجودگی کا مطلب آرٹیکل 29(1) کی خلاف ورزی نہیں ہے۔ درخواست گزار کو یہ ثابت کرنا ہوگا کہ ایک نسلی گروپ دوسرے نسلی گروپ کی موجودگی کی وجہ سے اپنی زبان اور ثقافت کی حفاظت کرنے میں ناکام ہے۔
سٹیزن شپ ایکٹ 1955 کی دفعہ 6A کیا ہے؟
سٹیزن شپ ایکٹ 1955 کی دفعہ 6A بھارتیہ نژاد غیر ملکی پناہ گزینوں کو جویکم جنوری 1966 کے بعد لیکن 25 مارچ 1971 سے پہلے بھارت آئے، انہیں بھارت کی شہریت طلب کرنے کا حق دیتی ہے۔ اس دفعہ کو 1985 میں آسام معاہدے کے بعد شامل کیا گیا تھا۔ حکومت ہند اور آسام تحریک کے رہنماؤں کے درمیان یہ معاہدہ ہوا تھا۔ دراصل آسام تحریک کے رہنما بنگلہ دیش سے آسام میں غیر قانونی پناہ گزینوں کو نکالنے کا مطالبہ کر رہے تھے۔
15اگست 1985 کو آنجہانی راجیو گاندھی کی سربراہی والی مرکزی حکومت، آسام کی صوبائی حکومت اور تحریک چلانے والی تنظیموں کے درمیان ایک معاہدہ ہوا جسے " آسام اکورڈ " کا نام دیا گیا جس میں یہ طے پایا کہ جو لوگ بھی 25،مارچ 1971 سے پہلے آسام میں آگئے تھے خواہ وہ کہیں سے بھی آئے ہوں اور جو بھی ہو ں، ان سب کو ہندوستانی تسلیم کیا جائے گا۔تمام فریقوں نے اس معاہدہ پر دستخط کئے اور ایک معاملہ حل ہوگیا، اور اُس کے بعد مرکزی سرکار نے شہریت ایکٹ 1955 میں ترمیم کرتے ہوئے پارلیمنٹ میں بل لاکر سیکشن 6Aکو داخل کیا، جس میں آسام کو دیگر ریاستوں سے مستثنی کرتے ہوئے وہاں شہریت کے لئے1971کو cut-Off year قرار دیا گیا۔
جمعیۃ علماء صوبہ آسام نے عدالت عظمی میں اس مقدمہ میں فریق بنتے ہوئے اسے چیلنج کیا اور آسام اکورڈ کو برقرار رکھنے کی مضبوطی کے ساتھ وکالت کی۔ جمعیۃ علماءہند کی طرف سے اس مقدمہ کی پیروی سینئر وکیل ایم آر شمشاد، دشینت داوے، اندرا جے سنگھ ، ایڈوکیٹ منصور علی خاں ، شکیل احمد سید مرحوم ( تا وفات ۲۰۲۰) سنجے ہیگڑے، آسام سے عبدالصبور تفادار، مصطفی خدام حسین، نظر الحق مزار کررہے تھے ۔
مقدمہ نمبر من جانب جمعیۃ علماء ہند
I.A. no. 8/2012 and I.A. No. 20/2015 in W.P. (C) No. 562/2012 and I.A. Nos. 5/2013 in W.P. (C) No. 274/2009
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