Supreme Court Overturns 1967 ‘Aziz Basha Judgment’ on Aligarh Muslim University. Jamiat Ulama-i-Hind welcomes verdict

Supreme Court Overturns 1967 ‘Aziz Basha Judgment’ on Aligarh Muslim University. Jamiat Ulama-i-Hind welcomes verdict


New Delhi, November 8, 2024: In a landmark ruling, the Supreme Court has reversed the 1967 Aziz Basha v. Union of India judgment, paving way for Aligarh Muslim University’s (AMU) minority status. The majority of seven-member bench, led by Chief Justice of India D.Y. Chandrachud, declared that an institution’s minority character cannot be disregarded solely because it was established through a central act of Parliament. Chief Justice Chandrachud emphasized that Article 30, which guarantees the rights of minorities to establish and administer educational institutions, applies to institutions founded both before and after the enactment of the Indian Constitution. Additionally, the court clarified that for an institution to hold minority status, it does not need to be fully managed by the minority community but must have been established by it.
Maulana Mahmood Asa’d Madani, President of Jamiat Ulama-i-Hind, welcomed the ruling as a pivotal affirmation of minority rights in India. He stated, “This verdict has a lesson for the current government which has, for years, hindered efforts to restore AMU’s minority character.

Maulana Madani emphasized Jamiat Ulama-i-Hind’s unwavering commitment to securing constitutional and educational rights for minorities, citing Jamiat’s persistent advocacy since the Aziz Basha ruling in 1967. Under the leadership of the late Maulana Syed Asad Madani, Jamiat championed a 14-year campaign both within and outside Parliament, culminating in the historic ‘All India Convention for Aligarh Muslim University’ in 1981. This convention, attended by delegates from across the nation, called on the government to pass an amendment to safeguard AMU’s minority character. In response, Parliament passed the 1981 Act, yet lingering biases in the bureaucracy left certain discrepancies in the Act, leading to further legal challenges. In 2006, the Allahabad High Court again nullified AMU’s minority status.

A Call for promotion of Education
Maulana Madani reiterated that AMU represents a vital legacy for Indian Muslims and must remain dedicated to its founding mission, especially in the face of educational challenges confronting the Muslim community today. "Changing the minority status of institutions like AMU not only undermines constitutional protections but augment further entrenching educational disadvantages for Muslims," he said.
Maulana Madani also commended the determined legal advocacy of AMU, the AMU Old Boys Association, and other intervening organizations. He called on the Muslim community to prioritize education, urging youth to pursue higher studies and contribute meaningfully to progress of country and community.

 

सुप्रीम कोर्ट ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से संबंधित 'अजीज बाशा जजमेंट' को खारिज कर दिया


- जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी ने फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि इससे अल्पसंख्यक दर्जे की बहाली का रास्ता आसान हुआ है

नई दिल्ली, 8 नवंबर 2024। सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय पीठ ने आज बहुमत से अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के अल्पसंख्यक चरित्र पर 1967 के सैयद अजीज बाशा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया जजमेंट को खारिज कर दिया है। अजीज बाशा के फैसले में मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को समाप्त करते हुए कहा गया था कोई संस्थान जिसे किसी केंद्रीय अधिनियम द्वारा स्थापित किया गया हो, वह अल्पसंख्यक दर्जे का हकदार नहीं हो सकता।
इसके विपरीत आज भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही पूर्व के फैसले को पलटते हुए कहा कि किसी संस्थान का अल्पसंख्यक चरित्र केवल इस आधार पर समाप्त नहीं हो सकता है कि उस संस्थान की स्थापना संसद के एक अधिनियम द्वारा की गई है। इसलिए अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट का पिछला मत और तर्क दोनों गलत हैं।
मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने फैसला सुनाते हुए आगे कहा कि अनुच्छेद 30 उन सभी संस्थानों पर समान रूप से लागू होता है जो भारतीय संविधान लागू होने से पूर्व स्थापित हुए हैं और जो संविधान लागू होने के बाद स्थापित हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है अल्पसंख्यक संस्थान होने के लिए केवल यह आवश्यक नहीं है कि संस्थान पूरी तरह से अल्पसंख्यकों के हाथ में हो, बल्कि इसकी स्थापना अल्पसंख्यक द्वारा होनी अनिवार्य है।
जमीअत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे महत्वपूर्ण और दूरगामी परिणाम वाला बताया है। मौलाना मदनी ने कहा कि इस निर्णय ने मौजूदा सरकार को भी आईना दिखाया है जो अल्पसंख्यक दर्जे की बहाली में रुकावट बनी हुई थी और उसने पिछली सरकार के रुख के खिलाफ अदालत में अल्पसंख्यक चरित्र को खत्म करने का रुख अपनाया था।
मौलाना मदनी ने कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद ने हमेशा मुस्लिम अल्पसंख्यकों के शैक्षिक और संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया है। इसका एक उदाहरण हाल ही में धार्मिक मदरसों के विरुद्ध सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा जारी नकारात्मक अभियान को रोकने का प्रयास है। इसी तरह अजीज बाशा मामले में जब 1967 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया था तो जमीअत उलमा-ए-हिंद ने फिदा-ए-मिल्लत मौलाना सैयद असद मदनी के नेतृत्व में 14 वर्षों तक इसके खिलाफ संसद के अंदर और बाहर लंबी लड़ाई लड़ी थी। इसी पृष्ठभूमि में जमीअत उलमा-ए-हिंद के तत्वावधान में 29 अगस्त 1981 को एक 'अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के लिए ऑल इंडिया कन्वेंशन' आयोजित किया गया, जिसमें देश के कोने-कोने से बड़ी संख्या में प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में जमीअत उलमा-ए-हिंद ने भारत सरकार से जोरदार ढंग से मांग की कि मुस्लिम विश्वविद्यालय के संशोधन विधेयक को संसद सत्र में पारित कर अल्पसंख्यक चरित्र को बहाल किया जाए। जमीअत उलमा-ए-हिंद के इस लंबे संघर्ष के परिणामस्वरूप, संसद ने 1981 में अधिनियम पारित किया। हालांकि, नौकरशाही की सांप्रदायिक मानसिकता की वजह से इस अधिनियम में कुछ खामियां छोड़ दी गईं, जिससे हस्तक्षेप का रास्ता खुला रह गया और इसके नतीजे में 2006 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक बार फिर अल्पसंख्यक दर्जे को समाप्त कर दिया। 2006 में जमीअत उलमा-ए-हिंद ने इस फैसले के संदर्भ में डॉ. मनमोहन सिंह से मुलाकात की और हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने की सलाह दी, जिस पर तत्कालीन सरकार ने कार्रवाई भी की और खुद भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपना पक्ष हलफनामे द्वारा पेश किया, लेकिन 2014 के बाद एनडीए सरकार ने पिछले रुख से हटते हुए अल्पसंख्यक दर्जा खत्म करने के पक्ष में कोर्ट में हलफनामा दाखिल किया।
सरकार के इस रवैये के खिलाफ गत दस वर्षों से जमीअत उलमा-ए-हिंद ने हर संभव संघर्ष किया है। मौलाना मदनी ने कहा कि जमीअत उलमा-ए-हिंद का लंबे समय से मानना है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, जो भारत के मुसलमानों की एक अनमोल धरोहर है, सुरक्षित रहे और उन लक्ष्यों की पूर्ति के लिए सफलतापूर्वक अपनी मंजिलें तय करती रहे, जिसके लिए इसकी स्थापना की गई थी। विशेष रूप से इस पृष्ठभूमि में कि आज मुसलमान शैक्षिक रूप से बेहद पिछड़ा है और विभिन्न रिपोर्टों ने इसकी पुष्टि की है, मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए स्थापित संस्थानों के चरित्र को बदलना वास्तव में मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ शत्रुता और उन्हें और पिछड़ेपन की ओर धकेलने का प्रयास है।
मौलाना मदनी ने इस अवसर पर सुप्रीम कोर्ट में कानूनी लड़ाई लड़ने वाले संगठनों एएमयू और एएमयू ओल्ड बॉयज़ एसोसिएशन और अन्य हस्तक्षेपकर्ताओं के कानूनी संघर्षों की सराहना की। मौलाना मदनी ने मुस्लिम अल्पसंख्यकों से विशेष रूप से अपील की कि वह शिक्षा पर ध्यान दें और उच्च शिक्षा प्राप्त कर देश और समाज के विकास में अपनी भूमिका निभाएं।

 

سپریم کورٹ نے علی گڑھ مسلم یونیورسٹی سے متعلق ’ عزیز باشا جج مینٹ‘کو مسترد کردیا

صدر جمعیۃ علماء ہند مولانا محمود مدنی نے فیصلے کا خیر مقدم کرتے ہوئے کہا کہ اس سے ا قلیتی کردار کی بحالی کی راہ ہموارہوئی ہے

نئی دہلی،۸؍ نومبر: سپریم کورٹ کی سات رکنی بنچ نے آج کثرت رائے سے علی گڑھ مسلم یونیورسٹی (اے ایم یو) کے اقلیتی کردار سے متعلق 1967 کے سید عزیز باشا بنام یونین آف انڈیاجج مینٹ کو مسترد کر دیا ہے۔ عزیز باشا کے فیصلے میں مسلم یونیورسٹی کے اقلیتی کردار کو کالعدم قرار دیتے ہوئے کہا گیا تھا کہ کوئی ادارہ جسے کسی سینٹرل ایکٹ کے ذریعے قائم کیا گیا ہو، وہ اقلیتی کردار کا حق دار نہیں ہوسکتا ۔

اس کے برعکس آج چیف جسٹس آف انڈیا ڈی وائی چندر چوڑ کی قیادت میں سپریم کورٹ نے اپنے ہی سابقہ فیصلے کو پلٹتے ہوئے کہا کہ کسی ادارے کا اقلیتی کردار محض اس بنیاد پر ختم نہیں ہوسکتا کہ اس ادارہ کا قیام پارلیامنٹ ایکٹ کے ذریعہ عمل میں آیا ہے ، لہذا عزیز باشا مقدمہ میں سپریم کورٹ کا سابقہ موقف اور استدلال دونوں غلط ہے۔

چیف جسٹس ڈی وائی چندر چوڑ نے فیصلہ سناتے ہوئے مزید کہا کہ آرٹیکل 30 کا اطلاق ان سبھی اداروں پر یکساں طور پرہوتا ہے جو آئین ہند نافذ ہونے سے قبل قائم ہوئے ہیں اور جو آئین کے نفاذ کے بعد قائم ہوئے ہیں۔سپریم کورٹ نے یہ بھی کہا کہ اقلیتی ادارہ ہونے کے لیے صرف یہ ضروری نہیںہے کہ ادارہ مکمل طور پر اقلیت کے ہاتھ میں ہو، بلکہ اس کا قیام اقلیت کے ذریعے ہونا لازمی ہے۔

صدر جمعیۃ علماء ہند مولانا محمود اسعد مدنی نے اس فیصلے کا خیر مقدم کرتے ہوئے اسے اہم اور دو ر رس نتائج کا حامل بتایا ہے ۔ مولانا مدنی نے کہا کہ اس فیصلے نے موجودہ حکومت کو بھی آئینہ دکھایا ہے جو اقلیتی کردار کی بحالی میں رکاوٹ بنی ہوئی تھی اور اس نے سابقہ حکومت کے موقف کے خلاف عدالت میں اقلیتی کردار کوختم کرنے کا موقف اختیار کیاتھا۔

مولانا مدنی نے کہا کہ جمعیۃ علماء ہند نے ہمیشہ مسلم اقلیت کے تعلیمی اور آئینی حقوق کے لیے جد وجہد کی ہے۔ اس کی مثال حال میں دینی مدارس کے خلاف سرکاری اور غیر سرکاری اداروں کی طرف سے جاری منفی مہم کو روکنے کی کوشش ہے ۔ اسی طرح عزیز باشا کیس کے بارے میںجب 1967 میں سپریم کورٹ کا فیصلہ آیا تھا تو جمعیۃ علماء ہند نے فدائے ملت مولانا سید اسعد مدنی ؒ کی قیادت میں 14 سالوں تک اس کے خلاف پارلیامنٹ کے اندرو باہر طویل لڑائی لڑی تھی ۔ اسی پس منظر میں جمعیۃ علماء ہند کے زیر اہتمام 29؍ اگست 1981 کو ایک’ کل ہند کنونشن برائے علی گڑھ مسلم یونیورسٹی ‘ نئی دہلی میں منعقد کیا گیا، جس میں ملک کے گوشے گوشے سے بھاری تعداد میں مندوبین نے شرکت کی۔ اس اجلاس میں جمعیۃ علماء ہند نے حکومت ہند سے پرزور مطالبہ کیا کہ مسلم یونیورسٹی کے ترمیمی بل کو پارلیمنٹ سیشن میں منظور کرکے اقلیتی کردار کو بحال کیا جائے۔ جمعیۃ علماء ہند کی اس طویل جدوجہد کے نتیجے میں پارلیمنٹ نے 1981 میں اس کو ایکٹ کو منظوری دی۔ تاہم بیوروکریسی کی فرقہ وارانہ ذہنیت کی وجہ سے اس ایکٹ میں چند خامیاں چھوڑ دی گئیں ، جن کی وجہ سے مداخلت کی راہ کھلی رہ گئی اور نتیجے کے طور پر 2006 میں الہ آباد ہائی کورٹ نے ایک بار پھر اقلیتی کردار کو ختم کر دیا۔ 2006 میں جمعیۃ علماء ہند نے اس فیصلے کے تناظر میں ڈاکٹر منموہن سنگھ سے ملاقات کی اور ہائی کورٹ کے فیصلے کو سپریم کورٹ میں چیلنج کرنے کا مشورہ دیا، جس پر اُس وقت کی حکومت نے عمل بھی کیا اور خود حکومت ہند نے اس فیصلے کے خلاف سپریم کورٹ میں اپنا حلفیہ موقف پیش کیا، لیکن 2014 کے بعد این ڈی اے حکومت نے سابقہ موقف سے انحراف کرتے ہوئے اقلیتی کردار کو کالعدم کرنے کے حق میں عدالت میں حلفیہ بیان داخل کیا۔ حکومت کے اس رویے کے خلاف گزشتہ دس سالوں سے جمعیۃ علماءہند نےہر ممکن جد وجہد کی ہے۔ مولانا مدنی نے کہا کہ جمعیۃ علماء ہند کا دیرینہ موقف رہا ہے کہ علی گڑھ مسلم یونیورسٹی جو مسلمانان ہند کا ایک گراں قدر سرمایہ ہے، محفوظ رہے اور ان مقاصد کی تکمیل کے لیے کامیابی کے ساتھ اپنی منزلیں طے کرتی رہے جن کے لیے اس کا قیام عمل میں آیا تھا۔ بالخصوص اس پس منظر میں کہ آج مسلمان تعلیمی اعتبار سے انتہائی پسماندہ ہیں اور مختلف رپورٹوں نے اس کی تصدیق بھی کی ہے، مسلم اقلیت کے لیے قائم کردہ اداروں کے کردار کو بدلنا درحقیقت مسلم اقلیت کے ساتھ عداوت اور اسے مزید پسماندگی میں دھکیلنے کی کوشش ہے۔

مولانا مدنی نے اس موقع پر سپریم کورٹ میں قانونی مقدمہ لڑنے والے ادارے اے ایم یو اور اے ایم یو اولڈ بوائز ایسوسی ایشن و دیگر مداخلت کاروں کی قانونی جد وجہد کی ستائش کی۔ مولانا مدنی نے مسلم اقلیت سے خاص طور پر اپیل کی کہ وہ تعلیم پر توجہ دیں اور اعلیٰ تعلیم حاصل کرکے ملک و ملت کی ترقی میں اپنا کردار ادا کریں ۔

Nov. 8, 2024


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